भारत, मेरी सोच, मैं और जिंदगी..., समाज, India

सब धंधा है!

भईया, हमारी मानो तो सब बिजनस है, बिजनस। जहाँ आँख गड़ती है, कारोबार ही नज़र आता है। जहाँ चलता हूँ, लोग दर-मुलाई करते हुए पाए जाते हैं। घर-चौराहा-शहर-ऑफिस-संसद-सरहद, हर जगह धंधे की बू आती है। सबको जैसे मुनाफा कमाना है और उसी मुनाफे से स्वर्ग की टिकट का बिजनस करना है।

भौतिकवादिता का उड़ता तीर जिस तरह हमने कुबूला है, अपनी इस सुन्दर कृति को ऐसा देख कर… ख़ुदा भी आसमां से जब ज़मीं पर देखता होगा… क्या से क्या हो गया… ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ। ऐसी हालत में ऊपरवाले का मदीरापान करना निषेध नहीं हो सकता। डूबते और दुखते को पहले मय का सहारा और तत्पश्चात् किसी दोस्त का सहारा।

आजकल तो अंतरजालीय संचार माध्यम (असमा) यानी कि सोशल मीडिया पर हर पोस्ट बिकाऊ लगता है। कौन किसके बारे में क्या पेल रहा है, अच्छा, बुरा, गलत, सही, जैसा भी हो, सब जैसे मुनाफ़े की कोई तरकीब और जुगत लगा रहे हों।

सब धन में मगन हैं
न चैन, न अमन है
खरीदना सबको गगन है
बस एक अविरल अगन है
सब धन में मगन हैं

अरे महाशय, जब सैनिकों की अर्थियों की भी लोग दूकान खोल लें तो फिर बाकी सबके बारे में कहना मक्कारी होगी। हर मौत पर हाय-तौबा मच रही है, लोग चिल्ला रहे हैं, खबरिया चीख रहे हैं, नेता-अभिनेता मौकों को तलाश रहे हैं और हम जैसे टिटपुन्जिये लेखक भी ऐसे विषयों पर लिख कर पैसे कमाने की होड़ में लगे हुए हैं। मैं ना कहता था, सब धंधा है? कोई दहेज ले कर शादी का धंधा कर रहा है तो कोई झूठी दहेज की साज़िश रचकर शादी का धंधा कर रहा है। सब वेश्यावृत्ति हो चली है जनाब, संभल जाईये।

अगर अभी तक आप इस लपेटे में नहीं आएँ हैं तो जल्द ही आएँगे और अगर बचना चाहते हैं तो सिर्फ एक ही उपाय है। संन्यास ले लीजिये। जी हाँ, सही पढ़ा। फकीर बन जाइए। घुस जाइए घने जंगलों की आड़ में जहाँ किसी कारोबारी को आपकी बू तक न आए नहीं तो वो वहाँ आ कर आपका भी धंधा बना डालेगा। दिक्कत यही है कि कम्मकल ये नए तरह के कारोबारियों को बिजनस करने के लिए अब दूकान खोलने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। ये छोटा-अदना सा जो चल-अचल, तार-रहित, तेज-बोंगा यंत्र आपके हाथ में है ना, बस यही सब हड़कंप की जड़ है।

ये बिजनस की बिमारी इसी यंत्र से फैलती है। चाहे सीने से लगाइए, चाहे लंगोट की जेब में रखिये, चाहे कानों पर चिपकाइए, ये बिमारी आपको कैसे भी जकड़ लेगी। और ऊपर से मशक्कत ये कि आज के ज़माने में अगर ये आपके पास न हो तो लोग बोलेंगे,
“क्यों, बाबा आदम के बाबा हो क्या?”
“क्यों, शेर शाह सूरी के चचा हो क्या?”
“क्यों, रानी एलिज़ाबेथ की दाई माँ हो क्या?”
जब ऐसे ताने सुनेंगे तो आदमी अपनी एक क्या, दोनों गुर्दे निलाम कर देगा पर इस यंत्र को फेफ़ड़ों से लगा लेगा, तभी जा कर उसके सीने को ठंडक मिलेगी।

देखिये, मैं हूँ लेखक, और मेरा काम है आपको आगाह करना। मेरा दायित्व कोई सामाजिक बदलाव का थोड़े ना है। उसका ठेका तो पहले से ही बुद्धिजीवियों ने हड़प रखा है। मैं तो बस लिखता हूँ और चुप हो जाता हूँ नहीं तो कल हमारी अर्थी की खबर भी छप जाएगी और आप सब मिलकर उसपर भी दूकान खोलकर बैठ जाएँगे और मन ही मन मेरी बात याद करेंगे, “मैं न कहता था, सब धंधा है!”

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रिसता यौवन

कब इस शांत-लहर-डर मन में उद्वेलित सुनामी जागेगी?
इस घुटते मरते यौवन में कब चिंगारी सी भागेगी?

काला अँधा सा ये जीवन, कैसा है यह बिका बिका?
क्यों हर चेहरा मुरझाया सा, क्यों है हर तन थका थका?
कब दौड़ेगी लाल लहू में, इक आग यूँ ही बैरागी सी?
स्फूर्ति-समर्पण-सम्मान सघन सी, निश्छल यूँ अनुरागी सी
कब इस शांत-लहर-डर मन में…

आँखें देखो धँसी-फटी सी, अंगूठे कैसे शिथिल-कटे
कपड़े ज्यों रुपयों की माला, आत्म-कपड़े चीथड़े-फटे
कब तक बिकेगा ये स्वर्णिम यौवन, यूँ ही कौड़ी कटोरे में?
आँखें तेज़, ऊँचा सीना, कदम हो विजयी हिलोरे ले
कब इस शांत-लहर-डर मन में…

क्यों है सोया-खोया जवां ये, आँखें खोले, खड़े हुए?
देखते नहीं सपने ये जिनमें, निद्रा-क्लांत हैं धरे हुए?
कब इन धूमिल आँखों का जल, लवण अपनी उड़ाएगा?
स्पष्ट निष्कलंक हो कर के फिर से, सच्चाई को पाएगा
कब इस शांत-लहर-डर मन में…

कैसा है ये स्वार्थ जो इनमें, अपने में ही घिरे हुए
५ इंच टकटकी लगाए, अपनी धुन में परे हुए
ज़िन्दा है या लाश है इनकी, नब्ज़ें ऐसी शिथिल हुई
हकीकत की लहरा दे सिहरन, कहाँ है वो जादुई सुई?
कब इस शांत-लहर-डर मन में…

भौतिकता में फूंकी जाती, देखो जवानी चमकती सी
बस पहन-ओढ़-खा-पी के कहते, ज़िन्दगी है बरसती सी
कब बिजली एक दहकती सी, इस भ्रांत स्वप्न को फूंकेगी?
फिर जल-बरस बेहया सी इनपर, यथार्थ धरा पर सुलगेगी
कब इस शांत-लहर-डर मन में…

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दो दिन ज़िन्दगी के

याद है वो कहावत, “चार दिन की है ये ज़िन्दगी..“? याद तो होगा ही, पर मुझे लगता है कि समय आ गया है इस कहावत को बदलने का। अब क्या कहें, समय और समाज में जो बदलाव आये हैं उसमें तो ये बदली हुई पंक्तियाँ ही सटीक लग रही हैं “दो दिन ज़िन्दगी के..

कितनी आसान थी उस छोटे से शहर में अपने छोटे ख़्वाबों को चुनते, एक दूसरे से बुनते हुए वो साधारण सी ज़िन्दगी। आह! सरल, सुखी और समृद्ध सा अलसाया हुआ जीवन। मुझे याद नहीं आता कि कभी हम हफ्ते के उन दो दिनों का इतने बेसब्री से इंतज़ार करते हों जितना आज करते हैं। बड़े शहर में आ कर सपने तो बड़े हो गए पर समय? समय दिन-ब-दिन छोटा होता जा रहा है।

सुबह से शाम कब हो जाती है, AC के डब्बे में बैठकर पता ही नहीं चलता। मौसम को आखिरी बार बदलते हुए कब देखा था पता नहीं। अब तो सिर्फ सर्दी-जुखाम-बुखार से ही बदलते मौसम का अंदेशा होता है। 5 दिन कब हवा बन के नज़रों के सामने से गुज़र जाती है ये खबर कानों को भी नहीं मिलती। खबर बस यही गरम रहती है कि “भाई, Saturday-Sunday आ गया“! ऐसा लगता है मानो हम इन दो दिनों के सेवक बन गए हैं। 5 दिन किसी और की सेवा करते हैं और 2 दिन शनि-रवि की।

कैसी घिसती हुई सी ये ज़िन्दगी हो गई है जो
हर हफ्ते उन दो दिनों की मोहताज हो जाती है,
हर हफ्ते वही दो दिन जिसमें हम जीने की कोशिश करते रहते हैं,
वही दो दिन जब हम अपने आसपास एक छलावे भरा जाल बुनकर समझते हैं कि इसमें हम जी लेंगे,
वही दो दिन जब हम अपने परिवार के साथ कुछ वक़्त बिताने की कोशिश करते हैं!

पर सोमवार आते ही रटते वही हैं कि “यार ये दो दिन कब उड़ गए पता ही नहीं चला“। सवाल ये है कि क्या हम अपनी ज़िन्दगी को बस उड़ते हुए ही देख रहे हैं या असल में जी भी रहे हैं?

क्या ज़िन्दगी का मकसद बहुत पैसे कमाना और उन दो दिनों में उनको बेहिसाब खर्च कर देना ही है? सुबह 8 से शाम की 8 बजाकर अगली सुबह की उधेढ़बुन में ही मचलते रहना, क्या यही है वो ज़िन्दगी जिसकी आप तलाश कर रहे हैं? सवाल तो बहुत बड़ा है पर जवाब इससे भी बड़ा होगा और यह जवाब हमें खुद के गिरेबान में झांककर ही मिलेगा।

ज़िन्दगी आसान तो नहीं ही है पर कम से कम इसे उलझन तो न बनाएं। 2 दिन की छुट्टी मिलेगी या नहीं, यही परेशानी आपको महीनों पहले खाने लगती है। आज घर जल्दी चला जाऊँ क्या? इस बार सैलरी कितनी बढ़ेगी? मेरा बॉस मेरे बारे में क्या सोचता है? मैं ऐसा क्या करूँ की प्रमोशन जल्दी हो जाए? आज हम वो 5 दिन इन्हीं सब सवालों से घिरकर निकाल रहे हैं। किसी ने सच ही कहा है, हम सादी कमीज़ और काली पतलून डाले हुए, हैं तो बंधुआ मजदूर ही। गले में एक कॉर्पोरेट पट्टा डालकर हम बन जाते हैं पूर्णतः एक कॉर्पोरेट कुत्ता!

अपनी जीवन की भीतरी अभिलाषाओं का खून करके, उसका गला घोंटकर, अपने ज़मीर को दबाकर, अपने भीतर के बचपन को मारकर, सलीकेदार बने रहकर, समाज की सीमाओं में बंधकर, एक-एक दिन दासों की तरह काटकर, अपनी उँगलियों को कीबोर्ड पर घिसकर आखिर कब तक हम अपने आपको धोखा देते रहेंगे? कभी सोचा है कि आखिरी साँस लेते वक़्त ये धोखा हमें अपनी मौत से पहले ही मार देगा? कहावत तो बदलते रहेंगे। कभी चार दिन, तो कभी दो दिन की हो जाएगी ज़िन्दगी पर आपके पास तो सिर्फ एक ही ज़िन्दगी है। आप कब इसे हर दिन, हर पल, हर साँस के साथ जीने की ललकता दिखाएँगे? जवाब आप ही के अन्दर है। आने वाले Saturday-Sunday में खोजने की कोशिश कीजियेगा!

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खामोश राहें

कितनी खूबसूरत अनुभूति है ये खामोशी। दिन-ब-दिन बढ़ते शोरगुल और मचलती दुनिया में खामोशी अपना एक अलग स्थान रखती है। ये केवल मैं ही नहीं, दुनिया के तमाम लोग समझते होंगे जब अपने आसपास एक सन्नाटा पसर जाता है तो कैसे हम अपने में खो जाते हैं। जब कई दिनों तक ज़िन्दगी की उधेड़बुन में अपना जीवन बहुत तेज़ी से गुज़रता हुआ दिखता है तो क्या ऐसा नहीं लगता कि पहाड़ों पे चला जाए, कुछ दिन मौन-व्रत रखा जाए, ज़िन्दगी को धीमे किया जाए? क्या ऐसा नहीं लगता कि आप अपने घर के छत पर खड़े हो कर शहर के सन्नाटे को सुनने के बजाय देख सकें? इस बात से हम कितने बेखबर जीए जाते हैं कि खामोशी में कितनी शक्ति है, उसमें कितनी ऊर्जा है जो आपके जीवन में, आपके मन में चल रहे उथल-पुथल को, उस सारे बवंडर को, अपनी उसी ऊर्जा से तहस नहस कर देता है।

इस ठहराव के कई और पहलू भी हैं। एक गायक ने मंच पर चढ़ते ही कहा कि गाना ख़त्म होने के करीब १० सेकंड बाद ही ताली बजाएँ। उस १० सेकंड की खामोशी में ही उस गीत का असली रस छुपा है। तबसे मैं कोशिश करता हूँ कि हर गाने को संपूर्णतः सुनूँ और सच मानिए, अब गीतों को सुनने का मज़ा कुछ और ही हो गया है। पश्चिमी संगीत में ठहरावों का बहुत महत्त्व है पर भारतीय संगीत में मौन की उतनी ही महत्ता मैंने कम देखी है। परन्तु कई फ़िल्मी गीतों में हम गाने के बीच में खामोशी को महसूस करते हैं और उस ठहराव के बाद जब पहला सुर लगता है तो मानों दिल को उखाड़ते हुए निकल जाए। पुराने गीतों में ‘ऐ दिल-ए-नादान’ में आपने इसे महसूस किया होगा। इस खामोशी से अपने दिल को बिन्धवाने के लिए नए गीतों में एक उदाहरण ‘हुस्ना’ गीत का आता है (पियूष मिश्रा का लिखा/गाया) जो आपको ज़रूर सुनना चाहिए।

गीतों की बात के बाद खामोशी की हमारे निजी जीवन में भी ज़बरदस्त सार्थकता है। कई दफे किसी वार्तालाप में आपकी खामोशी की आपके शब्दों से ज्यादा ज़रूरत होती है। किसी के टूटे हुए दिल को चुप हो के सुनना, किसी के ज़िन्दगी के दर्द को अपनी चुप्पी की आगोश में लेना भी बहुत बड़ी कला है। कम-स-कम जो माहौल आजकल चल पड़ा है जहाँ बोलने वाले लोग ज्यादा और सुनने वाले श्रोता कम हो चले हैं, वहाँ तो यह कला और भी दुर्लभ हुआ जा रहा है। सोशल मीडिया ने हमें बोलना और, और बोलना ही सिखाया है। इसने हमारी श्रवण शक्ति को निर्बल बना दिया है। सबको अपनी बात, बस कहनी है। कोई सुनना नहीं चाहता और यही एक बड़ा कारण है कि हमारे आपसी रिश्तों में भी इसका बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। चाहे बात फेसबुक की करें, ट्विटर की करें या वाट्सऐप की, हर जगह लोग चौबीसों घंटे चटर-चटर करते पाए जाते हैं। इसी नकारात्मकता का एक बहुत ही बुरा परिणाम कुछ दिनों पहले सुनने को मिला जिसमें मेरे ही कॉलेज के एक लड़के ने ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि वह निराशा और उदासी का शिकार हो गया था। सोशल मीडिया पे वह मज़ाकिया और खुश माना जाने वाला इंसान था पर असल ज़िन्दगी में कुछ और ही चल रहा था। शायद उसको सही में सुनने वाला एक भी इंसान न मिला। आज ये एक बहुत बड़ा सवाल है हम सबके सामने कि हम अपनी वाचालता और चुप्पी के बीच एक संतुलन कैसे बनाते हैं।

खामोशी हमारे लिए एक उपहार है जिसका मूल्य हम हर बीतते दिन के साथ भूलते जा रहे हैं। जब तक हम खामोशी से भी बात करना नहीं सीख जाएँगे तब तक हम परिपक्वता का केवल ढोंग कर सकते हैं। कितना सुकून मिलता है जब हम किसी फ़िल्म में नायक-नायिका को आँखों से अपने प्यार का इज़हार और बातें करते हुए देखते हैं। ये खामोशी ही है जो आपके रिश्तों की नींव को मज़बूत करती है। वैसे जाते-जाते बस एक ही बात कहना चाहूँगा। अगर ऊपर की सारी बात हवा हो गई हों तो याद करिये जब किसी दूसरे के घर पर रहते हुए किस खामोशी और चुप्पी से भी आपके माँ-बापू आपकी खबर ले लेते थे! 🙂 आह क्या दिन थे!
अब जब तक आप अपनी कोई टिप्पणी इस पोस्ट पर छोड़ कर जाते हैं, तब तक मैं अपने मन को मौन कर बचपन के किसी एक ऐसी घटना में खो लूँ।

वैसे मुझे बहुत देर से याद आया कि पिछले महीने (16/4) मुझे ब्लॉगिंग करते हुए 7 साल हो चुके हैं. आप सभी का आभार! 🙂

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रिश्तों की डोर

रश्मि उन लाखों लड़कियों की तरह है जो आज बेबाक, आज़ाद और खुले माहौल में रहना पसंद करती हैं और रहती भी हैं। पहले पढ़ाई के लिए कई साल घर से दूर रही और उसके बाद से नौकरी करते हुए भी घर से दूर रहती है। रश्मि के मम्मी-पापा ने कभी उसके निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया बस अपने सुझाव भर दिए. आज एक अच्छी कंपनी के एक अच्छी पोस्ट पर रश्मि आसीन है।

जैसा कि अक्सर होता है, माँ-बाप दूर रहने वाले अपने बच्चों से दिन में दो मिनट बात कर दिल को तसल्ली दे देते हैं, वैसा ही यहाँ भी था। हर रोज़ एक-दो दफे माँ और पापा, दोनों से रश्मि की बात हो ही जाती थी। जब बात हाल-चाल तक कि रहती, तब तक तो ठीक था पर जब माँ के सवाल ऑफिस, वहाँ के लोग, दूसरे दोस्त और अन्य निजी मामलों पर पहुँचती तो रश्मि थोड़ी खीज जाती थी। उसे लगने लगता जैसे कोई उसके पंखों को पकड़ कर नीचे गिराने की कोशिश कर रहा है परन्तु ऐसा था नहीं। रश्मि केवल एक बेटी होने की हैसियत से ही सोचती थी। सच ही है, जब तक आप खुद माँ या बाप नहीं बन जाते, आप अपने माँ-बाप का आपके प्रति व्यवहार को समझ नहीं सकते। इसी खीज की वजह से कई बार वह बहाना बना कर फ़ोन काट देती।

ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा और रिश्ता यूँ ही संभालता रहा। पर एक दिन उसके पापा का फ़ोन आया और अगले ही दिन वो अपने घर पर थी। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा उसके साथ भी हो सकता है। पिछले रोज़ ही माँ घर पर काम करती हुई अचानक ज़मीन पर फिसली और दुर्भाग्यवश उनका सिर पास ही रखे टेबल की नोक से जा टकराया। विधि का विधान ही था कि एक चोट ने रश्मि से उसकी माँ को छीन लिया। यह घटना जितनी दर्दनाक थी, उतनी ही ये सभी के लिए भयावह थी। महीने भर तक घर में सन्नाटा पसरा रहा और फिर ज़िन्दगी के क्रूर नियम के हिसाब से सबने अपनी अपनी डोर फिर संभाल ली

रश्मि वापस अपने शहर आ गई और ऑफिस में व्यस्त हो गई पर हर रात वो अपने कमरे के कोने में बैठकर रोती थी। अपने फ़ोन को देखते हुए सोचती थी कि शायद यह सब एक अनचाहा सपना हो और उसके माँ के नाम से यह फ़ोन फिर से बज उठे। वो अपनी माँ से बात करना चाहती थी, उनकी आवाज़ सुनना चाहती थी, अपने ऑफिस, अपने दोस्तों, अपने बारे में, सब कुछ बताना चाहती थी। अब उसके पास कोई बहाना नहीं था पर समय का चक्र निर्दयी होता है। आज एक तरफ जब उसके पास बात न करने का बहाना नहीं था तो दूसरी और उसके फ़ोन के दूसरी ओर से अब कभी माँ की आवाज़ नहीं आती थी। वह ग्लानि और पश्चाताप में जीने को मजबूर थी। अब वो दिन ढल गए थे जब यह सब कितना आसान था।

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बुरा तो मानो… होली है!

आजकल लोग बुरा नहीं मान रहे, क्या बात हो गयी है ऐसे? अभी कुछ दिन पहले तक तो लोग सुई गिरने पर भी हल्ला बोल मचा देते थे। अभी कल ही एक दोस्त मिला कई अरसे बाद। मैंने उसे खूब खरी-खोटी सुनाई कि अब शादी हो गई है तो मिलता नहीं है, जोरू का गुलाम हो गया है, बीवी आते ही दोस्त बेकार हो गए? मुझे लगा कि वो अब आहत हो, तब आहत हो, पर मुए ने सिर तक न हिलाया, मुस्कुराता रहा। मुझे लगा था कि अब बोलेगा, या भड़केगा या बचाव करेगा पर नहीं, जनाब ने मुझे चारों खाने चित कर दिया था। मैं मायूस हो गया और उसके बजाय खुद ही आहत हो लिया। फिर मुझे लगा शायद शादी की डसन ने बेचारे को ज़्यादा उत्तेजित होने की कला से विरक्त कर दिया है तो मैं अपने रास्ते हो लिया।

आजकल फैशन में बुरा मान जाना बहुत चल रहा है इसलिए अगर कोई ऐसा नहीं मानता तो उसके खिलाफ तो मैं खुद ही बुरा मान जाता हूँ कि उसने बुरा क्यों नहीं माना? भई, समाज भी कुछ होता है! हमें बचपन से संस्कार मिला है कि समाज के साथ चलो, उसके जैसा करो, तब समाज आगे बढ़ेगा और तुम भी समाज की नज़रों में हवाओं पर उड़ोगे। बस इसलिए जो समाज में फैले फैशन के खिलाफ जाता है तो हम आहत हो जाते हैं। मैं तो कहता हूँ कि बच्चा परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो तो उसके शिक्षकों से ले कर, माँ-बाप, रिश्तेदार इत्यादियों को भी तुरंत आहत हो लेना चाहिए। इससे समाज का संतुलन बना रहेगा। नहीं तो क्या है कि बच्चा भी घबरा जाएगा कि लोग बुरा क्यों नहीं मान रहे हैं। हमें उस बच्चे की मानसिक हालत की हवा नहीं निकालनी है तो बुरा तो मानना ही होगा। आखिर अनुत्तीर्ण होना तो घोर अपराध है जिससे उसका जीवन व्यर्थ हो सकता है और समाज बर्बाद।

सुबह-शाम, दोपहर-रात, घर-ऑफिस, बस-ट्रेन, मालिक-नौकर, आदमी-जानवर, इत्यादि सभी मौकों और परिस्थितियों को हम आहतों के अनुकूल बना रहे हैं जो कि एक प्रशंसनीय कदम है। एक दोस्तनी को २ दिन तक मेसेज का जवाब नहीं दिया तो तीसरे दिन बुरा लगने का मेसेज आ गया और लिखा था कि वो २ दिन तक कुढ़ती रही थी और वो मुझसे बहुत आहत है क्योंकि मैंने उसके “कैसे हो?” का जवाब नहीं दिया था। मैंने उसे जवाब में लिखा, “मुझे तो तुम्हारा मेसेज ही नहीं मिला और तुम यूँ ही आहत हो ली? फ़ोकट में आहत हो कर कैसा लग रहा है? वैसे भी आजकल चलन में है। 😀” उसका जवाब तो अभी तक नहीं आया है। शायद कुछ दिन और कुढ़ेगी। कुढने दीजिये, अच्छा है समाज के लिए। इसी सिलसिले में ४-५ और लोगों को आहत करेगी और ये कड़ी को बढ़ाने में मदद करेगी।

और ये देखिये, बुरा मानने वाला तो सबसे बड़ा त्यौहार भी आ रहा है। मैं तो कह रहा हूँ कि होली की टैगलाइन को बदल कर “बुरा तो मानो होली है!” कर देना चाहिए क्योंकि बुरा मानने वालों की जमात अभी बहुमत में है। इससे सुनहरा मौका नहीं मिलेगा इस आहती सोच को बढ़ाने में। मार्केटिंग के ज़माने में टाइमिंग भी आखिर कोई चीज़ होती है। होली के दिन अगर कोई घर पर आ कर बाहर निकलने को कहे तो साफ़ कह दें कि इस बार वो होली नहीं खेलेंगे क्योंकि वो सरकार से आहत हैं कि उसने अपने वायदे पूरे नहीं किये या फिर कह दें कि इंद्र देव ने बिन मौसम “बरसो रे मेघा” कर दिया इसलिए वो नाक-भौं सिकोड़े बैठे हैं या फिर कह दें कि ओबामा ने भारत के खिलाफ जो बयान दिया है वो उनके गले नहीं उतरी है इसलिए इस साल वो अपने गले से भांग भी नहीं उतरने देंगे। कहने का मतलब है कि टुच्ची से टुच्ची बात के लिए भी अब हमको बुरा मान लेने की आदत डालनी पड़ेगी।

कोई कुछ ट्वीटता है तो ५० लोग हंगामा कर बैठते हैं, उन ५० लोगों के खिलाफ फिर १०० लोग हल्ला बोल देते हैं और फिर उन १०० के खिलाफ… आप समझ रहे हैं ना? बस यही जो कड़ी-दर-कड़ी, ट्वीट-दर-ट्वीट, पोस्ट-दर-पोस्ट, बयान-दर-बयान बुरा मानने का सिलसिला चल रहा है इसे हमें तब तक ख़त्म नहीं होने देना है जब तक हम ना ख़त्म हो लें। वैसे भी आजकल दिन भर का रोना हो गया है कि ज़िन्दगी बेकार हो गई है, नौकरी बेजान सी है, कोई आपको प्यार नहीं करता, आप ४ घंटे ट्रैफिक में बिताते हैं और भी न जाने क्या क्या। इसलिए इसका सबसे बढ़िया उपाय इन सबसे ऊपर उठने की बजाय आहत हो हो कर मर जाना अच्छा है। नहीं? अरे, अरे, आप तो बुरा मान गए। खैर मंशा तो मेरी यही ही थी।

देखिये अब मैं तो कहता हूँ कि आप ये पोस्ट पढ़ कर जबरदस्त ढंग से बुरा मान जाएँ कि इस पोस्ट से तो समाज में नकारात्मकता फैल रही है और इस पोस्ट को पढ़ कर कितनों की ज़िन्दगी तबाह हो जाएगी। और हाँ इस बुरा मानने के सिलसिले में ब्लॉग का लिंक भी फैला दीजियेगा। क्या है ना कि मार्केटिंग का ज़माना है और हमें फ़ोकट की मार्केटिंग बहुत पसंद है ठीक उन्हीं की तरह जो बे सिर-पैर की बयानबाजी से आपको आहत किये जा रहे हैं और आप उनकी फ्री फ़ोकट मार्केटिंग। अरे रे ये तो राज़ की बात खुल गई। वैसे कोई बात नहीं, आप तो हमारे मित्र हैं। मैं बुरा नहीं मानूँगा।

नोट: अभी अभी हमारी दोस्तनी का जवाब आ गया है। कह रही है कि उसने मुझे सोशल मीडिया पे हर जगह ब्लॉक कर दिया है। मुझे तो वैसे भी धेला फर्क नहीं पड़ रहा था। चलिए मगझमारी कम हुई एक 🙂
आपको होली की शुभकामनाएँ। खूब होली खेलिए-खिलाइए और लोगों को बुरा मनवाइये और ज़ोर से बोलिए, “बुरा तो मानो…”

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सफ़र वही, सोच नई

राजेश, यही नाम है उसका। वैसे तो कोई भी नाम ले लीजिये, कहानी कुछ ऐसी ही रहेगी।

राजेश रोज़ मेट्रो में सफ़र करता है। वैसे देखें तो अंग्रेजी वाला suffer भी कहा जा सकता है। और सिर्फ राजेश ही क्यों, सिर्फ नाम बदल दीजिये और उसी की तरह कई और राजेश भी रोज़ मेट्रो में सफ़र करते हैं। कहते हैं कि इस देश में एक तो साधारण श्रेणी (General) का होना और दूसरा लड़का होना बहुत बड़ा गुनाह है। कम से कम पढ़ाई के क्षेत्र में। पर जन-परिवहन में किसी भी श्रेणी का नौजवान लड़का होना सबसे बड़ा गुनाह-ए-तारीफ़ है।

हर किसी दिन की तरह वो भी दिन था। राजेश ऑफिस से लौट रहा था और किस्मत को दाद देनी होगी कि उसे आज बैठने के लिए सीट मिल गई जो कि ना ही महिलाओं के लिए और ना ही विकलांगों और वृद्धों के लिए आरक्षित थी। मन में तसल्ली लिए और कानों में टुन्नी (earphones) घुसाए वो आज इस सफ़र का आनंद उठा रहा था कई दिनों बाद। पास वाली महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर एक नौजवान लड़की बैठी थी, उससे शायद कुछ साल छोटी होगी।

चंद स्टेशन निकले होंगे कि अचानक राजेश के सामने एक वृद्ध महिला आ कर खड़ी हो गई जो कि देखने से गंभीर और अच्छे घर की लग रही थी। कुछ लम्हों के लिए तो किसी ने कुछ नहीं किया पर राजेश को लगा कि अब बगल वाली लड़की उठ कर उन्हें सीट देगी पर यहाँ किस्मत को खुजली हो आई और ये हो न पाया।

इसी बीच वृद्धा की नज़र राजेश पर गड़ गई और उसने झट बोल दिया, “तुम उठ जाओ, मुझे बैठने दो।” अगर और कोई दिन होता तो शायद कोई बात नहीं थी पर आज तो उसके बगल में एक हमउम्र लड़की बैठी थी तो फिर वो ही क्यों उठे? ऐसा उसने सोचा और तपाक से बगल वाली मोहतरमा से कहा, “आप उनको बैठने दीजिये। ये महिलाओं के लिए आरक्षित भी है और आप खड़ी हो कर यात्रा कर सकती हैं।” एक बार को तो जैसे लड़की और वृद्धा, दोनों को सांप सूंघ गया। शायद दोनों ने ऐसी “असामाजिक” जवाब के बारे में सोचा ही नहीं था।

इसके बाद वृद्धा ही उससे बहस करने लगी, “लड़की क्यों उठे, तुम्हें उठना चाहिए।” पर राजेश आज अड़ गया बोला, “अगर लड़का-लड़की को एक समझा जाता है तो मैं ही क्यों उठूँ? केवल मुझे ही इसके लिए मजबूर क्यों किया जाए? क्या मैं दिन भर काम करके नहीं आया हूँ जो नहीं थका होऊँगा? अगर हम आज Gender Equality की बात कर रहे हैं तो फिर आज मैं नहीं उठूँगा, आप इस लड़की से अपनी सीट देने के लिए कहिये”

आसपास वाले यात्री एक बार को तो चौंके पर फिर राजेश की बातों की ओर झुकने लगे। लड़की ने वृद्धा के बिना बोले ही सीट खाली कर दी।

स्टेशन बदल रहे थे पर साथ ही साथ लोगों की सोच भी।

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Book Review

कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ (समीक्षा)

दिनेश गुप्ता ‘दिन’ जी का मेल मिला कि उनकी नयी कविता संग्रह, “कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ” जल्द ही पाठकों के समक्ष हाज़िर हो रही है और मैं भी इस संग्रह के बारे में अपने विचार सभी तक पहुंचाऊं। जल्द ही यह पुस्तक मेरे हाथों में थी और श्रृंगार से भरी इस रसभरी संग्रह का हमने पान किया और आपके समक्ष इसका स्वाद ले कर हाज़िर हैं।

सबसे पहले आपको बता दूं कि दिनेश गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेर इंजिनियर हैं पर लिखने के शौक और जुनून ने इनको अपनी तीसरी किताब प्रकाशित करने पर मजबूर कर दिया है। इससे पहले ‘मेरी आँखों में मोहब्बत के मंज़र हैं’ और ‘जो कुछ भी था दरमियाँ’ भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इस युवा कवि की एक प्रशंसनीय कोशिश है इनकी यह तीसरी किताब, ‘कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ’।

‘मेरी आँखों में जिसका अक्स है, मुझसे कितना दूर वो शख्स है’

इन सुन्दर पंक्तियों से दिल का दर्द बयां कर देते हैं ‘दिन’ और अपने अन्दर छुपे दर्द को शब्दों की लहरों में बहा देते हैं।

आज के दौर के प्यार को कुछ इन शब्दों में बयां कर रहे हैं ‘दिन’:

उड़ानें इतनी ऊँची हो गयी कि ज़मीं से नाता टूट गया,
इतनी बुलंदी पर आ पहुँचे कि हर अपना छूट गया,
मुहब्बत किताबों में अच्छी थी, जो आज़माने की भूल कर बैठे,
तिनका-तिनका, ज़र्रा-ज़र्रा, कतरा-कतरा लुट गया।।

किस तरह आज का युवा अपने रिश्तों और अपनी पेशेवर तरक्की के दरमियाँ जूझ रहा है, वह इन पंक्तियों से झलक जाती है। जहाँ एक ओर हम आज के युवा का ज़मीन से ना जुड़े होने का झंडा फहराते हैं वहीँ ऐसे युवा लेखक आज के दौर में भी क्रियात्मक और भावनात्मक होने के प्रमाण दे रहे हैं अपनी लेखनी से, अपने शब्दों से।

कजरे की धार लिखूँ या फूलों वाला हार लिखूँ मैं,
लबों की शोखी लिखूँ मैं या आँखों का इकरार लिखूँ मैं,
इस रीते तन-मन से, अधूरे-अकेले खाली पन से,
कैसे नवयौवन-मधुवन का सारा श्रृंगार लिखूँ मैं।।

इन सुन्दर शब्दों की लड़ी पिरोकर श्रृंगार रस को और सुन्दर बना रहे हैं ‘दिन’

अपनी कई कविताओं का संकलन इस पुस्तक में प्रस्तुत करके दिनेश गुप्ता ‘दिन’ ने युवा श्रृंगार कवियों को न केवल एक बेहतरीन संग्रह प्रदान किया है पर और खूबसूरत लिखने का हौसला भी दिया है। अपने कार्य के साथ-साथ अपनी जान, लेखन को भी जारी रख कर ‘दिन’ ने सभी को प्रोत्साहित किया है जिसके लिए अनेक शुभकामनाएं।

किताब को प्रकाशित किया है ‘ऑथर्स इन्क इंडिया’ ने पर एक मलाल मुझे ज़रूर हो रहा है कि पुस्तक का सम्पादन शत-प्रतिशत नहीं हुआ है और मैंने कई जगह वर्तनियों में गलतियाँ पाई हैं। अगर पुस्तकें गलत छापेंगी तो हिन्दी के गिरते स्तर में उत्थान कहाँ से आएगा? फॉर्मेटिंग और सम्पादन में मेरे ख्याल से अभी काफी सुधार की गुंजाइश है और इश्वर से प्रार्थना है कि इसका दूसरा संस्करण छपे और उसमें इन सभी गलतियों को सुधारा जाए।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस युवा श्रृंगार कवि को आप पढना चाहेंगे। किताब के बारे में और जानकारी के लिए देखें:
Web: http://dineshguptadin.in/
FB: https://www.facebook.com/dineshguptaofficial
Youtube: https://www.youtube.com/watch?v=tCKCnxwAwfc
Email: dinesh.gupta28@gmail.com

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मेरी सोच, समाज, India

बड़ा शहर vs अपना शहर

एक शहर है, बहुत विशाल, लोगों से भरा, लोगों से डरा, मकानों से पटा, सटा-सटा। ये शहर ‘बड़ा शहर’ है। एक है इसका उलट, छोटा सा, आधे घंटे में एक छोर से उस छोर, कम लोग, नीचे मकान, खाली सड़कें, बिलकुल विपरीत, ‘छोटा शहर’

मस्त, अपना शहर vs व्यस्त बड़ा शहर (चित्र साभार गूगल)

अभी मैं बड़े शहर का बाशिंदा हूँ, या यूँ कहें कि यहाँ एक मुसाफिर हूँ। हाँ मुसाफिर ही कहूँगा। यह एक बस स्टॉप की तरह है। भीड़-भाड़, गन्दगी, दहशत, संदेहास्पद मुसाफ़िर और लोगों का आना जाना। यहाँ पर शहर का लोगों पर ज़ोर है। उसी के हिसाब से लोग चलते हैं। लोगों को शहर का खौफ़ है। वो शहर जो खुद तो अदृश्य है पर लोगों पर हुकूमत चलाता है, भगवान की तरह?

मेरे जैसे मुसाफ़िर जो छोटे शहरों को अपना दिल बेच चुके हैं, उनको यह बस स्टॉप कभी पसंद नहीं आ सकता। यहाँ लोग दौड़ते-भागते रहते हैं, मुझे तो लोगों को ठहरे हुए देखने की आदत है, उनके चहरे को पढ़ने की आदत, उनके भावों को समझने की आदत, उनसे बतियाने की आदत, उनके साथ चाय पीने की आदत। ये आदत बड़े शहरों में ख़राब हो गई है। कोई रुकता ही नहीं है जिसको मैं समझ सकूं, जो मुझे समझ सके। कोई रुकता नहीं है ५ मिनट के लिए जिससे दोस्ती कर सकूँ, जिसके साथ चाय पी सकूँ। यहाँ लोग चाय कॉफ़ी पर तभी मिलते हैं जब उन्हें कोई काम निकलवाना होता है। छोटे शहरों में जब कोई काम नहीं होता तो चाय पर मिल जाते हैं, अक्सर हर शाम।

बड़े शहरों में ऊँची ऊँची दीवारें है। घरों और दिलों, दोनों के बीच। न तुम मुझे जानते हो, न मैं तुम्हें। “क्या तुम मेरे पड़ोस में पिछले १ साल से रह रहे हो? कभी गौर नहीं किया।” ये आम वाक्य है लोगों के। छोटे अपने शहर में कोई एक दिन के लिए भी अनजान नहीं रहता। मैं अपने मोहल्ले में सबको नाम से जानता हूँ, पहचानता हूँ। वहाँ अभी भी पैसों के लिए अनजान नहीं होते हैं। अभी कुछ समय पहले बड़े शहर में मेरे नीचे तल्ले के बाशिंदे की तबियत ख़राब हुई थी। मुझे पूरे एक हफ्ते बाद दरबान से पता चला कि वो अस्पताल में भरती हैं। अब जा कर मिलने में भी संकोच हो रहा है। कुछ चीज़ें समय निकलने के बाद करनी मुश्किल हो जाती हैं। अपने शहर में छींक आने पर भी ५ लोग पूछ लेते हैं कि क्या दवा-पानी चल रहा है और नसीहत इतनी दे जाते हैं कि बिमारी से ज़्यादा नसीहतों का डर लगने लगता है। बड़े शहर के कई मुसाफिर कहते हैं कि “यहाँ ठीक है, कोई परेशान नहीं करता अपनी नसीहतों से।” पर सच तो यह भी है कि आदमी को मरे हुए ३ दिन निकल जाते हैं और दुर्गन्ध से ही पता चलता है कि वो तो गया। ३ दिन के अंतर और नसीहतों के समंदर के बीच फैसला ऐसी घटनाओं से ही हो जाता है।

मैंने कभी अपने शहर में लोगों को हर दिन ऐसे भागते हुए नहीं देखा कि मानों पागल कुत्ता पीछे पड़ा हो। वैसे कभी-कभार कुत्ते पीछे पड़ जाते हैं तो भागना पड़ता है। बड़े शहरों में मैंने मुसाफिरों को हर दिन केवल भागते ही तो देखा है। बसों में, ट्रेनों में, ट्रकों में, मेट्रो में, गाड़ियों में, बाईकों में, सब तरफ लोगों के बीच एक ऐसी अनकही-अदृश्य दौड़ है जिसका अंत किसी को नहीं पता और न ही इस दौड़ का कोई विश्लेषण कर पाया है। मेट्रो के दरवाज़ों के खुलते ही लोग बैलून में से हवा निकलने की प्रक्रिया को हुबहू नक़ल करते हैं। ऐसा लगता है कि वो निर्जीव मेट्रो भी अब इनके निकलने पर सांस ले पा रहा है। हर तरफ अफरा-तफरी मची हुई है। कोई किससे भिड़ रहा है, कोई किससे लड़ रहा है। किसी के केश अगर किसी के हाथों को छू जाए तो लात-घूँसे चल जाते हैं। ये मुसाफिर वही लोग हैं जो छोटे शहरों से हैं। क्योंकि उन्होंने कभी इतनी भीड़ को झेला नहीं होता है तो यहाँ आ कर बौरा जाते हैं। अपने शहर में मैं केवल परिचितों से भिड़ता हूँ, यदा-कदा बाज़ार में। कभी किसी अनजान से भिड़ गया तो भी एक हँसी से बात आई-गई हो जाती है।

बड़े शहरों में लोग कमाने आते हैं पर खुद को बेच देते हैं। अपना शरीर, अपना ज़मीर। कईयों को तो इसके लिए मुँह-माँगे दाम भी नहीं मिलते हैं। अपने शहर में लोग इतनी आसानी से बिकाऊ नहीं होते हैं क्योंकि वहाँ समाज की पकड़ मज़बूत है, उसका डर है, उसकी नज़र है। बड़े शहर में समाज को तड़ीपार कर दिया गया है। यहाँ समाज बन ही नहीं सकता क्योंकि यहाँ दीवारें बहुत ऊँची हैं और ऊँची दीवारों से तो आजतक बँटवारा ही हुआ है। नहीं?

बड़े शहर के लोग हर दिन चीखते चिल्लाते हैं, शोर मचाते हैं पर दिक्कत ये है कि हर कोई अपनी शोर मचा रहा है। कोई सुनने वाला ही नहीं है। यही कारण है कि लोग दुखी हैं। उनके दुःख को वो किसे सुनाएँ? मेरे शहर में चीखने चिल्लाने की नौबत नहीं आती। संतुष्ट लोगों को सुनने की आदत ज्यादा होती है। किसी एक को सुनने के लिए हजारों कान हैं। यहाँ संतुष्टि है तो शान्ति है। वहाँ शोर है तो अशांति है।

मैं तो यहाँ सिर्फ मुसाफ़िर ही बन कर रहना चाहता हूँ। मैं कभी इस बड़े शहर को ‘अपना’ शहर नहीं कह पाऊँगा। अगर यहाँ जन्मता-बढ़ता तो शायद ऐसा हो पाता। मुझे अपने शहर पहुँचना है। वहाँ से निकला तो हूँ पर वहीँ वापस पहुँचने के लिए। कैसी अजीब विडम्बना है ये ज़िन्दगी।

वैसे एक सच तो यह भी है कि शहर किसी का नहीं होता। न मेरा न तुम्हारा। वह तो मूक दर्शक की भांति सबको देखता-तकता रहता है और मंद-मंद मुस्कुराता रहता है कि कैसे बेवकूफ है यहाँ के लोग जो उसे अपना कहते हैं जबकि वह उनके रुदन पर कभी नहीं रोता है, उनकी ख़ुशी में कभी नहीं हँसता है। पर एक सत्य यह भी है कि ज़िन्दगी को पार करने के लिए एक ऐसा सहारा चाहिए जो बस इस सफ़र तक हमारा हो। एक शहर को अपना कहकर आदमी के दिल को ठंडक मिल जाती है और उसका सफ़र थोड़ा कम कष्टदायक हो जाता है।

चलिए निकलता हूँ एक रिश्तेदार से मिलने। आज का पूरा दिन इसी मिलने के नाम है। अपने शहर में तो हम अपने सभी रिश्तेदारों से दिन में दो बार मिल आते हैं। ये बड़ा शहर मुझे कभी रास नहीं आया।

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मसाला चाय, हिन्दी, Divya Prakash Dubey, Terms & Conditions Apply

मसाला चाय | Terms & Conditions Apply | किताब समीक्षा

“दिव्य प्रकाश दुबे”, एक ऐसा नाम है जो नए प्रभावशाली युवा हिन्दी लेखकों में अपना नाम शुमार करवा चुके हैं। इनकी दो किताबें, “मसाला चाय” और “Terms & Conditions Apply” अब तक छप चुकी है और हिन्द युग्म ने इन पुस्तकों को प्रकाशित किया है। आज दोनों किताबों के बारे में साथ ही बात करेंगे।

मैं किसी भी किताब के बारे में एक ऐसी सोच पेश करने की कोशिश करता हूँ जो कि एक सामान्य पाठक सोचता हो। यह नहीं कह सकता कि कितना सफल होता हूँ पर सोच की दिशा उसी तरफ रहती है। मैं, ना ही कोई समीक्षक हूँ और ना ही बड़ा लेखक, इसलिए इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी विचार मेरे निजी हैं और इन्हें अन्यथा किसी तरह न लें 🙂

“मसाला चाय” और “Terms & Conditions Apply” दोनों करीब करीब एक सी किताबें हैं जिसमें हिंगलिश का पुरज़ोर प्रयोग हुआ है। हिन्दी लेखन में वैसे तो मैं ‘हिंगलिश’ का हिमायती नहीं हूँ क्योंकि मैं इसे भाषा में भ्रष्टाचार मानता हूँ पर लेखक ने शायद इस ख्याल से यह किताबें लिखी हैं कि आज कि जो युवा बोलचाल भाषा है, जो कि ना ही शुद्ध हिन्दी है और ना ही शुद्ध अंग्रेजी है, को लेखन में इस्तेमाल किया जाए जिससे युवा पाठक अपने आप को इन किताबों के साथ जोड़कर देख सके। शायद यह प्रयोग सफल भी रहा है और, और भी कई किताबें इन्हीं पदचिन्हों पर चलते हुए आज पाठक-बाज़ार में प्रवेश कर चुकी हैं। तो पाठक अभिविन्यस्त (oriented) दृष्टि से देखें तो यह एक बढ़िया प्रयोग है पर भाषा की शुद्धता और उच्चता पर विचार करें तो उसमें संशय हो आता है।

दोनों ही किताबों ने कई छोटी-बड़ी कहानियों का एक पुलिंदा पेश किया है और सभी बेहद रोचक और आपको अपने अन्दर समेटने वाली हैं। क्योंकि यह युवाओं को ध्यान में रखते हुए लिखी गयी कहानियाँ हैं, इसलिए ये इस तबके को तुरंत पसंद आएगी। इन कहानियों के पात्र हमारे ही इर्द गिर्द छोटे-बड़े शहरों में बसते हैं। शायद कोई कहानी आपकी अपनी भी हो, शायद आपके किसी दोस्त कि या फिर अखबार में पढ़े किसी खबर की, पर हैं ये हमारी ही। कई कहानियाँ जो छोटे शहरों की हैं आपको आपके अतीत में ले जाएँगी और वो अल्हड़ दिन याद दिला देंगी। छोटे शहरों में चुप्पी में जीती ये कहानियों को आवाज़ दी है इन किताबों ने तो बड़े शहर के युवाओं की आम ज़िन्दगी को भी बहुत ही सरल शब्दों और विचारों में पेश किया है दिव्य प्रकाश दुबे जी ने।

इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि ये दोनों किताबें ऐसी हैं जिनको चाहे आप बार बार पढ़ें पर हमेशा नई सी लगेगी वैसे ही जैसे जब भी आप अपने ख़ास दोस्तों से मिलते हैं तो नए नए से लगते हैं। ये कथाएँ आपकी दोस्त हैं क्योंकि ये आप ही के बीच की हैं, आपकी हैं।

संपूर्णतः कहूँ, तो मुझे ये दोनों किताबें बेहद आकर्षक लगी क्योंकि हल्का-फुल्का पढ़ने का भी अपना ही मज़ा है वरना प्रेमचंद, निराला, इत्यादि तो हम बचपन से ही पढ़ते आये हैं 🙂

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